Sangam
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आपके हाथ में जो किताब है, जिसका नाम “संगम” है। यह काल्पनिक और वास्तविकता के बीच का एक समन्वय है। एक दौड़ में, मैं और मेरी प्रेमिका ने यह फैसला किया था कि विवाह के उपरांत हम अपने बेटे का नाम “संगम” रखेंगे। मगर कुछ समय बाद परिस्थिति और समय के तूफान ने हम दोनों को जुदा कर दिया, क्योंकि उन लोगों की शिकायत थी कि मैं गलत रास्ते पर हूँ, परंतु यह बात जब मेरे घरवालों तक पहुंची तो उनलोगों की इस गलतफहमी को दूर करने के लिए मेरे घरवालों ने हर संभव प्रयास किया। मगर कुछ हद तक असफल रहे। तत्पश्चात मैंने यह प्रण किया कि शादी करूंगा तो उन्हीं से वरना आजीवन अविवाहित रहूंगा। इतना कुछ होने के बावजूद भी मेरे जेहन में “संगम” नाम हमेशा जीवित रहा। तब मैंने “संगम” को इस दुनिया में लाने का फैसला किया। यूं तो “संगम” का जन्म हमारे संगम से ही होना था मगर ऐसा नहीं हुआ। तब अंततः मैंने अपने बेटे “संगम” को कलम की ताकत से किताबी शक्ल देकर इस दुनिया में अमर कर दिया। इसे किताबी शक्ल देने में मेरे पिताजी स्वर्गीय सुधीर प्रसाद “सुमन”, मेरी माताजी “श्रीमती विभा देवी”, मेरा छोटा भाई “शशि भूषण”, मेरी छोटी बहन “शोभा कुमारी”, भाई समान मित्र “निखिल रॉकी” तथा “राजन कुमार मंडल” से काफी प्रोत्साहन और प्रेरणा मिला। जब भी मुझे इन लोगों की जरूरत महसूस होती थी तब इन लोगों का साथ अवश्य मिलता था। इन लोगों ने मेरी हर प्रकार से मदद की। इस किताब के नाम के पीछे की कहानी शायद आप लोगों को समझ में आ गई होगी। मैं उम्मीद करूंगा कि इसे पढ़कर सभी पाठकगण अपनी राय दें तथा साथ ही वो भी अपनी राय दें जिनके लिए इस किताब को लिखा गया है।
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